बीती रात जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और मोदी सरकार 2.0 में कैबिनेट मंत्री (इस्पात) रह चुके रामचंद्र प्रसाद सिंह (आरसीपी सिंह) ने जदयू की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। नीतीश कुमार के करीबियों में से आरसीपी सिंह एकमात्र ऐसे शख्स रहे, जिनको उन्होंने अपने अच्छे दिनों में अपना सबसे करीबी साथी बनाया। यहां तक कि बिना राजनीतिक संघर्ष के राजनीति में प्रवेश के बावजूद पार्टी की शीर्ष नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपी। फिर कुछ ऐसे घटनाक्रम हुए कि…जो आरसीपी कभी जदयू में नम्बर दो की हैसियत रखने लगे थे, उन्हें आज पार्टी से इस्तीफा देना पड़ गया।

अब सवाल यह है कि आरसीपी के इस इस्तीफे से जदयू को कितना नुकसान होगा? और खुद आरसीपी को इस फैसले से फायदा होगा या नुकसान?

जेएनयू के पूर्व छात्र और यूपी कैडर के आईएएस अधिकारी रहे आरसीपी सिंह नीतीश कुमार से तब जुड़े, जब नीतीश जी केंद्र में अटल सरकार में रेल/कृषि बने। ऐसा कहा जाता है कि समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता बेनी प्रसाद वर्मा के रिकमेंडेशन पर नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को अपने साथ दिल्ली बुलाया। चूंकि, आरसीपी स्वजातीय होने के साथ-साथ नालंदा वासी थे, तो उनके पास भरोसे के लिए वजहें पर्याप्त थीं। जाहिर है आरसीपी काबिल अफसर होंगे, तभी बेनी बाबू ने उनको रिकमेंड भी किया होगा।
केंद्र में साथ काम करते हुए आरसीपी सिंह ने नीतीश कुमार का भरोसा इस कदर जीता कि जब 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमन्त्री बने तो आरसीपी को अपना प्रिंसिपल सेक्रेट्री बनाया। बिहार आने के बाद आरसीपी सिंह को राजनीति का पूरा स्वाद लग चुका था। 2010 में आरसीपी सिंह ने बाबू की कुर्सी छोड़ी और जदयू के बाबूसाहब बन कर राज्यसभा पहुंच गये। कल आरसीपी ने जब नीतीश कुमार के बारे में बताया कि वे हर रोज शाम को तीन घंटे बैठ कर बात करते हैं। किस मुख्यमन्त्री के पास इतना खाली समय होगा। आरसीपी की यह बात, उनकी पीड़ा को दर्शाने के लिए काफी हैं।
जब तक यूपीए की सरकार केंद्र में थी, नीतीश कुमार बिहार में बहुत मजबूत थे। 2014 में जदयू का अकेले चुनाव लड़ना, फिर नीतीश कुमार का मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा देकर जीतनराम मांझी को मुख्यमन्त्री बना देना। फिर 2015 में प्रशांत किशोर का जदयू में आना और राजद के साथ चुनाव लड़ कर सरकार बनाना और फिर 2017 में वापस भाजपा के साथ लौट कर सरकार बना लेना। यह सब ऐसे पड़ाव रहे, जिसने नीतीश कुमार को राजनीतिक रूप से थोड़ा अविश्वसनीय और कमजोर किया।

इस बीच प्रशांत किशोर द्वारा जदयू की स्ट्रटजी तैयार करने की वजह से आरसीपी सिंह कुछ समय के लिए असहज भी रहे। फिर 2016 में वे दोबारा राज्यसभा पहुंचे। वैसे भी आरसीपी सिंह, मजबूत नीतीश कुमार के सारथी बने थे और हमेशा उनके साथ रहते हुए किसी लाभ के पद पर ही रहे। केंद्र में मोदी की सरकार 2019 में फिर से बनी। जदयू को कैबिनेट में सांकेतिक हिस्सेदारी मिल रही थी, लेकिन तब नीतीश कुमार ही जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। उन्होंने सांकेतिक हिस्सेदारी के लिए मना कर दिया। वे आनुपतिक हिस्सेदारी चाहते थे। लेकिन आरसीपी की इच्छा थी कि वे मंत्री बनें।
उनकी हसरत तब पूरी हो गयी, जब 2020 के आखिरी महीने में वे जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और उनके पास निर्णय का अधिकार था कि जदयू केंद्र के मंत्रिमण्डल विस्तार में हिस्सा बनेगा या नहीं। नीतीश कुमार अब भी आनुपतिक हिस्सेदारी पर ही अड़े थे, लेकिन आरसीपी ने अपने पावर का इस्तेमाल करते हुए खुद मंत्रिपद की शपथ ले ली। यही वह घटना रही, जब वह नीतीश कुमार की आंखों में खटक गये। चूंकि, आरसीपी जमीनी संघर्ष से उपजे नेता नहीं हैं। ऐसे में तीसरे टर्म में आरसीपी को राज्यसभा की कुर्सी न मिलने से उनके लिए जदयू में रह पाना आसान नहीं था।

बाहर से लगता हो कि आरसीपी के जदयू छोड़ने की वजह ललन सिंह व उपेंद्र कुशवाहा की जोड़ी हो, लेकिन आरसीपी को इस स्थिति तक पहुंचने के लिए मजबूर करने वाले आदमी नीतीश कुमार ही हैं। जहां तक जदयू और आरसीपी के फायदे-नुकसान की बात है। यह तो भविष्य के गर्भ में है।लेकिन, आरसीपी को अभी भले मंत्रिपद/जदयू छोड़ना पड़ा, लेकिन यदि वे 2024 तक बिहार में सक्रिय रहे तो जमीनी नेता न होने की दाग से वे बहुत हद तक मुक्त हो जायेंगे। हालांकि, बने-बनाये संगठन में लोगों को जोड़ना और खुद का संगठन खड़ा करना दोनों में बहुत अंतर है।
ऐसे में वे भाजपा के नाव की सवारी भी करना चाहेंगे, लेकिन जब तक नीतीश कुमार सक्रिय हैं। आरसीपी की यह इच्छा पूरी हो पाने में भी संकट ही संकट है।